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जो शिलालेख बनता उसको, अखबार बना कर क्या पाया?(Bhagat Singh)

जो प्रश्नो से ढेह जाए वोह किरदार बना के क्या पाया, जो शिलालेख बनता उसको अख़बार बनाकर क्या पाया।


                New Zealand में एक सड़क है, उस सड़क के किनारे एक Quotation board रखी गई है जिसमे लिखा है 'Don't make stupid people famous' । कुमार विश्वास की यह कविता भी यह दर्द को साफ बयां करती है। कुछ ऐसे लोग है जिसके साथ भारत ने राजनीती के चक्कर में इतना अन्याय किया है की वह लोग अमर होने के बजाय इतिहास की धूल के तले उनकी तस्वीरें कही धुंधली हो गई।

             23 March जैसे चुपचाप आया ऐसे ही चुपचाप चला गया। बहुत कम लोगो ने तीन शहीदों को याद किया जिन्हो ने देश के दिल में क्रांति और आज़ादी की ज्वालायें जलाई थी। ऐसा कहने में जरा भी अतिसयोक्ति नहीं है की यह सभी क्रांतिवीरो को भारत पूरी तरह से भूल चूका है। KRK , मणिसंकर अय्यर जैसे लोगो को भारत जैसे देश में मशहूर होने में ज़रा भी देर नहीं लगती। दूसरी और Higgs Boson जैसे शोध में बोस शब्द जगदीशचंद्र बोस का है वह भी 95% भारतीयों को मालूम नहीं है। शिवाजी, अशोक, और चंद्रगुप्त जैसे भारत भूमि के विरो को इतिहासकारो ने पीछे की क़तार में रखकर दूसरे देश के राजाओ जैसे की अकबर बाबर को मशहूर करना भारत के इतिहास विदो की बुरी आदत रही है। आज भी अगर आप नोवमी या दसमी कक्षा की इतिहास की किताबे देखे तो आपको उसमे दूसरे देश के राजाओ की वीरता की बाते तो बड़े सोख से लिखी है, जब भारत के सपूतो के बारे में भारत के बच्चो को बता कर देश भक्ति जगाने की बात आती है तब वह विषय को थोड़े से शब्दो में निपटा दिया जाता है। भगतसिंह के साथ भी यही अन्याय हुआ है। न सिर्फ भगतसिंह बल्कि उनके आलावा नेताजी (Recommendation: Altbalaji की online series Bose जरूर देखे ) जैसे कई लोगो को क्रांति के लिए की गई कोशिशे पूरी तरह से दबा दी गई है। गाँधी को इतना मशहूर किया गया वह बात तो ठीक है लेकिन महात्मा ने अपने हठाग्रह की वजह से कई ऐसे लोगो की जान ली जो अगर ज़िंदा होते तो आज़ादी 1947 से पहले मिल जाती। इतिहासविदों के बिच इस बात को ले कर कई मतभेद है की क्या गाँधी चाहते तो भगतसिंह की फांसी वाकई में रोक सकते थे? तो वाचको को बताना चाहूंगा की हा अगर गाँधी चाहते तो भगतसिंह की फांसी रोक सकते थे। अंग्रेज़ सरकार ने भगतसिंह को फांसी देने से पहले गांधीजी को पत्र लिखा था। गाँधी मना करते तो भगतसिंह की फांसी बिलकुल रोक सकते थे। रोकने के बजाये जब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को इंडियन असेंबली में बंब विस्फोट किया तो गाँधीजी के शब्द यह थे "यह हिंसा का काम हमें सोभा नहीं देता, हम वह निर्दोस अंग्रेज़ो को क्यों मारे जिनका कोई कसूर नहीं है"। यानि की गाँधीजी भगतसिंह का पूरी तरह से विरोध कर रहे थे।

             यह बात भी सही है की गाँधीजी ने अंग्रेज़ सरकार को जवाब देते समय भगत सिंह की फांसी रोकने की अपील करता हुआ खत वापस भेजा था जो 24 March को सरकार को पहुंचा था। लेकिन गाँधीजी ने खत का जवाब देने में इतनी देरी क्यों की वह भी एक सवाल है।

                भगत सिंह जैसे लोग हमारी सरकार के लिए या हमारे लिए हीरो नहीं है यह हमारे देश का बड़ा दुर्भाग्य है। दूसरी और भगत सिंह जैसे तेजस्वी और विद्वान् व्यक्तिव्त को हमारे देश ने छोटी उम्र में खो दिया वह भी एक बड़ा दुर्भाग्य है। कुछ वाचक यह बात पर चौंके होंगे की में भगत सिंह को विद्वान् क्यों कह रहा हु, वह तो एक क्रन्तिकारी थे। यह प्रश्न जायज है क्यों की भारत की जनता सिर्फ राजकर्ताओ के विचार से, Media की बक बक से और जूठी Aggressive चर्चाओं से दबी पड़ी है। खुद Research करके सच को ढूंढ निकालना भारत की हवा में ही नहीं है (इसी लिए भारत के विद्वान् विदेश जाकर नाम कमाते है)।

                यह पूरी घटना में दो तारीखे बहुत महत्व पूर्ण है 4 April 1931 जब गाँधीजी और लोर्ड इरविन के बिच गाँधी की चडवड को ख़तम करने का प्रस्ताव स्वीकार हुआ जिसमे गाँधीजी ने जेल में बंध 90000 क्रांतिकारिओं को छोड़ने की मांग की। जब असहकार की क्रांति को ख़तम किया तब ब्रिटिश ने वह 90000 क्रांतिकारिओं को छोड़ दिया लेकिन उन सब में ब्रिटिश सरकार ने वह तीन क्रांतिकारिओं को छोड़ने ने से साफ़ मना कर दिया और गांधीजी ने उनको छुंड़वाने पर बहुत दबाव भी नहीं किया। अगर गाँधी चाहते तो वह तीन क्रांतिकारिओं को भी आसानी से छुड़वा सकते थे। दूसरी तारीख है 23 March 1931 जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई ।

               भारत में जितने क्रन्तिकारी हुए है उनमे भगत सिंह अजोड़ है क्यों की असहकार और जलियावाला की घटना के बाद जब गांधीजी ने अपनी क्रांति की ज्वाला जलने के बाद उसे खुद ही बुजा दिया तब भगत सिंह को लगा की गाँधी थोड़े कच्चे लीडर है। रशिया की बोल्शेविक क्रांति और दूसरे साम्राज्यों की क्रांति के बारे मे भगत सिंह ने बहुत सारे पुस्तकों का अभ्यास किया था। उसके बाद भगत सिंह को लगा की कोई भी स्वराज की मांग करने वाला लीडर स्वराज की ज्वाला जला कर खुद ही नहीं बुझाता। और यह दुःख सिर्फ भगत सिंह को ही नहीं बल्कि कई दूसरे क्रांतिवीरो जैसे की उधमसिंह बागा, रोशनसिंह, जतिन दास, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाकुल्ला खान, बटुकेश्वर दत्त और राम प्रसाद बिस्मिल को भी था। भगत सिंह के व्यक्तित्व का प्रभाव भारत की जनता पर, असेम्बली में बंब गिराने के बाद इतना पड़ा की उनकी एक झलक के लिए लोगो की भीड़ जमने लगी। भगत सिंह की ताकत उनकी शब्दो में थी। वह एक सप्ताह में एक किताब तो अवश्य पढ़ डालते थे। जब उनको लाहौर की जेल में रखा गया था तब भी वह हरोज एक किताब मांगते थे।

              भगत सिंह को देखने के लिए भीड़ जमा न हो इसी लिए लोर्ड इरविन ने लाहौर की जेल में ही कोर्ट का बंदोबस्त कर दिया। और वही पे उनको जन्मटिप की सजा सुनाई गई। असहकार के आंदोलन को वापस खींचने के बाद और एसेम्बली में बंब की घटना के बाद प्रजा का पूरा झुकाव भगत सिंह की और जाने लगा दूसरी और जेल से छूट कर आये जवारलाल नेहरू ने भी क्रांति के भाषण भगत सिंह की छटा में देने शुरू कर दिए यह सब देख कर लोर्ड इरविन बोखला गए उन्हें जनता के मन में गाँधी की धुंधली पड़ी तस्वीर को वापस ज्वलंत करने का काम शुरू कर दिया और गाँधी को समाधान के लिए मिलने का बुलावा भेजा।

             दूसरी और भगत सिंह की बढती लोक चाहना देख लोर्ड इरविन ने जूठे गवाहों और जूठे सबूतों की मदद से भगत सिंह को फांसी देने का पूरा बंदोबस्त कर लिया था। लाहौर के पुलिस अफसर सॉन्डर्स की मृत्यु जिस गोली से हुई वह राजगुरु ने मारी थी इस लिए भगत सिंह की बाद में मारी गई गोलिया मृतदेह को मारी गई गोलिया थी जो की भगत सिंह पर 302 का केस नहीं चला सकती थी। भगत सिंह पर जूठा केस बनाया गया जिसमे लाहौर में उनके मिले हथियार, उनकी बंब फैक्ट्री और उनके बारूद सब कथित थे। उनके खिलाफ 600 साक्षी भी खड़े किये गए जिन्हो ने यह सब भगत सिंह का है ऐसा कबूल किया। यह सब नाटक लाहौर जेल में 5 महीनो तक चला, और आखिर कार 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई।

           शायद यह बात सभी भारत वासियो को चुभ सकती है, लेकिन अहिंसा की लड़त के बजाये अगर देश ने भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिवीरो का साथ दिया होता तो 1930 में ही देश की आज़ादी निश्चित थी। विश्वयुद्ध से कंगाल होने के बाद ब्रिटेन के पास धन भंडोल की कमी थी। भारत ब्रिटेन के लिए एक सर दर्द बन चुका था। इसी लिए प्रधान मंत्री बनने के तुरंत बाद क्लीमेंट एटली ने भारत को अपनी और से आज़ादी दे दी। नाकी गाँधीजी की वजह से यह देश आज़ाद हो सका। अगर अहिंसा की वजह से यह देश आज़ाद हो सकता तो 1922 या फिर 1930 में ही हो जाता। बेशक गांधीजी ने जो देश के लिए किया है वह सराहनीय है अलबत गाँधी के नाम के आगे महात्मा विषेशण ऐसे ही नहीं लगा है। मगर भारतीय गांधीजी को और नेहरूजी को जितनी सिद्दत से पूजते है उतनी सिद्दत से सुभासचंद्र बोस और भगत सिंह को नहीं पूजते। इसी लिए एक सच्चे भारतीय का दिल चिल्लाता है। जो सिला लेख बन सकता था उसे अखबार बना कर क्या पाया। 'सोने की चिड़िया' का सोना(धन) अंग्रेज ले गऐ और चिड़िया(ईमान) को भ्रष्टाचारी नेता पका कर खा गऐ। 

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